Tuesday, August 13, 2013

इनकलाबी रोटी

इनकलाबी रोटी :

आज फिर एक चिंगारी उठी .
उठी , इतना भी नहीं ....
की शोला बन जाये .
आज फिर लगी नसें फरफराने .
लगी , इतना भी नहीं की
लहू उबल का बाहर आ जाये .
आज फिर कुछ करने की तमन्ना हुई .
हुई , इतना भी नहीं की
सर पे कफ़न होठों पर इन्कलाब आ जाये .
चलो फिर कोशिश करता हूँ .
दिल को चूल्हा ,
धरकन को तवा बनाता हूँ .
इरादों के जलावन में .
हौसले का चिंगारी लगता हूँ .
शायद तभी वतनपरस्ती
की रोटी पकेगी .
भूख तो बहुत है .
और मेवे भी बिखरे पड़े हैं .
इधर उधर .
पर भूख तो मेरी
उसी इंकलाबी रोटी से मिटेगी .
----मुकेश  पंजियार 

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